Tuesday, January 12, 2016

जैन धर्म और परमात्मा

विश्व के सभी धर्म किसी परम सत्ता को परमात्मा रूप मे वर्णन करते है जैसे ईश्वर, अल्लाह, रब्ब, गौड । जैन धर्म भी परमात्मा के अस्तित्व को स्वीकार करता है । परन्तु जैन दर्शन मे परमात्मा की परिभाषा भिन्न है ।   अन्य दर्शन परमात्मा को एक परम सत्ता के रूप मे वर्णन करते है जिसने सभी पदार्थो और जीवो का निर्माण किया है, जो विश्व को संचालित कर रहा है और जो जीवो को उनके अच्छे बुरे कार्यो का फ़ल देता है ।  

जैन दर्शन के अनुसार परमात्मा आत्मा की ही परम अवस्था को कहा गया है । जीव जब अपनी शुद्ध अवस्था को प्राप्त होता है तो वह परमात्मा कहलाता है । यह विश्व अनादि और अनन्त है । जिसका अस्तित्व है उसकी आदि और अन्त नही होता । इस जगत मे जो परिणमन हो रहा है वह जीव और पुदगल के स्वभाव से ही हो रहा है । अतः परमात्मा विश्व का सृजन, पालन-पोषण या संहार नही करता । अनन्त आत्माए परमात्म अवस्था को प्राप्त हो चुकी है । प्रत्येक आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व है । कोई भी परमाणु या आत्मा अपने अस्तित्व को कभी नही खोती । परमाणु आपस मे जुडकर सम्बन्ध बना सकते है पर सब परमाणुओ का स्वतन्त्र अस्तित्व बना रहता है । आत्माएँ भी एक स्थान पर साथ रहते हुए भी अपना स्वतन्त्र अस्तित्व बनाए रखती है ।      
         
जैन दर्शन के अनुसार आत्मा ज्ञान, आनन्द, चेतना, शक्ति स्वरूप है । कर्म बंधन और आस्रव भावो से आत्मा के परिणाम मलिनता को प्राप्त है, ज्ञान आवृत है और शक्ति बाधित है । कर्म मुक्त होने पर आत्मा का ज्ञान, दर्शन, चेतना, शक्ति और आनन्द प्रकट हो जाता है जैसे बादल हटने से सूर्य प्रकट हो जाता है । आत्मा से परमात्मा बनना ही धर्म का लक्ष्य है ।